Saturday 27 June 2020

गगन से बरसा मौत अगन का




गगन से बरसा मौत अगन का
तड़ित समाधि बना निर्मम सा
छीन लिया कुंकुम की आभा
रूप सुहागन की सुख शोभा.
शाप ताप की ज्वाला बनकर
कुपित प्रलय दर्शाया भू पर
वज्रपात का विषाद भयंकर
दंड विधान ये कैसा ईश्वर.
मूर्ति से बाहर आ क्षण भर
देखो दशा धरती का पलभर
उजड़ गया कितनों का आंगन
पग-पग विषम हुआ है जीवन.
अश्क पलक में छलक रहे हैं
कुंज में बचपन बिलख रहे हैं
दो अवलंबन संबल स्वामी
शोक क्षोभ हरो अंतर्यामी.
भारती दास



Saturday 20 June 2020

पिताजी सिखलाया करते थे



पल बीत गया क्षण बीत गया
यादों का मंजर है ठहरा सा
पुलक भरी सुख का अनुगुंजन
हृदय के अंदर है बिखरा सा.
वो गेह कहां वो स्नेह कहां
था मुस्काता सब चेहरा सा
स्मृति से छनकर आती है
था जहां प्रेम का पहरा सा.
अब समझ में सब आता है
जो कुछ नित्य कहा करते थे
ज्ञान धर्म उत्थान की बातें
पिताजी सिखलाया करते थे.
उन्हें याद कर गदगद होते
जैसे पावन हो कथा सुहानी
निज मन ही झकझोर रहा है
नयनों में भर आता पानी.
व्यस्त रहे सुख के संचय में
भूले मद में अमृत वाणी
व्याकुल उर अब ढूंढ रहा है
उन कदमों की धूमिल निशानी.
भारती दास ✍️


 


Tuesday 16 June 2020

विधाता का है उपहार

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क्यों छोड़ चले संसार
था खुद पे नहीं एतबार
क्यों.........
था सबकुछ तो जीवन में
थी कैसी कमी तेरे मन में
किस बात से मान ली हार
क्यों...........
प्राणी चेष्टा करता है
किसको सबकुछ मिलता है
करते क्षण का इंतजार
क्यों............
कुछ लोग सहायक होते
कुछ बाधा बन बन जाते
है जग का यही व्यवहार
क्यों.............
उपेक्षा तो वहीं करते हैं
जो तुच्छ तृषित होते हैं
वो भरमाते हैं बेकार
क्यों..............
सबको जाना है एक दिन
यही सत्य बड़ा है भ्रम-हीन
क्यों अधीर हुये लाचार
क्यों............
ये जीवन है वरदान
इसे नष्ट न कर इंसान
विधाता का है उपहार
क्यों...........
भारती दास





Friday 12 June 2020

स्वतंत्र वेग का पवन




असंख्य रेत ले उड़ा
अनेक पौध को गिरा
स्वतंत्र वेग का पवन
जहां तहां घूमा फिरा.
स्वतंत्रता सीमित रहे
सोच शुभ अडिग रहे
प्रकृति संग जीव का
जुड़े सभी घटक रहे.
सीमा हीन क्षेत्र का
उन्मुक्त ये गगन सदा
पर हितार्थ के लिए
गला तपा सर्वदा.
जरूरत मंद है मही
स्वतंत्र हो समझ यही
समस्या जो अनंत है
सदभाव पूर्ण हो सभी.
दूसरे का कष्ट भी
मानकर अपना कभी
महसूस करता जो कहीं
विचलित विकल होता वही.
देख उर करता कराह
बढ रहा मृत्यु का प्रवाह
व्यर्थ किससे क्या कहें
दर्द वेदना अथाह.
भारती दास ✍️

 





Saturday 6 June 2020

जीवन रण है

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खेत नहीं था भूमि नहीं थी
होश हुआ तब मातृहीन थी
जीविका कुछ तलाश रही थी
उदास बहुत हताश हुई थी.
मिला न अबतक कोई काज
ढलने वाली है ये सांझ
कैसे बुझेगी पेट की आग
दुर्बल पिता होंगे नाराज.
द्वार-द्वार पर जा रही थी
हाथ जोड़ कर गा रही थी
दुत्कार सभी की सता रही थी
आंखों से आंसू बहा रही थी.
द्रवित हो गई सरल सुनैना
भर आये थे उसके नैना
उसने कहा घर मेरे आना
काम काज में हाथ बंटाना.
कर्मठ कर्म करते रहते हैं
भाग्य से जूझते ही रहते हैं
तृप्त अतृप्त होते रहते हैं
कई उपेक्षायें सहते हैं.
जिसअन्न को उपजाते किसान
वही अनाज खाते धनवान
जबतक है जीवों में प्राण
भूख है सबकी एक समान.
उत्साहित वो मुग्ध खड़ी थी
सुख संतोष में भींग रही थी
कर्म सूत्र को सीख रही थी
जीवन-रण को समझ रही थी.
पिता अनेकों कष्ट सहे थे
उसके लिए ही जिये मरे थे
होली दीवाली खूब मने थे
वहीं आज अस्वस्थ पड़े थे.
मेहनत की पहली कमाई
हर्षित होकर वह मुस्काई
नित्य नियति से होगी लड़ाई
नव आशा ने विषाद मिटाई.
भारती दास

    



Thursday 4 June 2020

लेखनी हर-पल कुछ कहती


कागज पर जो छपते अक्षर
काले रंग ही होते अक्सर
अभिव्यक्ति बन जाती बेहतर
सदचिंतन देती उर में भर .
श्याम रंग से लिखी इबादत
अंतस की बन जाती चाहत
चित भले हो कवि का काला
शुभ्र पंक्तियाँ भर देते उजाला
भाव विचार का ताना-बाना
कह देते हैं कसक वेदना
भाषायें शब्दों से बनती
शब्द हो चाहे उर्दू-हिंदी
प्रत्येक शब्द का होता मूल्य
जो दर्शाता है सामर्थ्य अमूल्य
अर्थ-ध्वनि का होता समावेश
करता निर्मित पात्र और वेश
भावनाओं में भीगा स्वरुप
अपनत्व भरे बहुतेरे रूप
रोम-रोम आनंदित करते
मंद समीर बन मन को छूते 
संवेदना में भींग जाते हैं स्वर
वेदना कभी बन जाते हैं प्रखर
कहीं फूलों सी खुशबु बन जाती
कहीं प्रेरणा बनकर मुस्काती
कागज के उजले पन्नों पर
बन जाती अनमोल बिखर कर
लेखनी हरपल कुछ कह जाती
अनंत भावों संग बह जाती.

भारती दास ✍️