जड़ता-कटुता-हिंसा
ने
सभ्यता को पंक
बना दिया
मिट्टी के पुतले
बनकर
मानवता को मुरझा
दिया.
विद्वेष घृणा से
लड़नेवाले
अनुरागहीन
अनासक्त हुआ
भूलोक का गौरव
मनोहर
देख कर भी न
आसक्त हुआ.
मधुरता का बोध ही
जाने कहाँ पर खो
गया
ऐसा प्रतीत होता
है
जन यांत्रिक सा
हो गया.
मानव ही मानव का
बन रहा व्यवधान
तोड़ पाये जो
प्रथा को
है वही विद्वान.
छूट कर पीछे गया
है
भावनाओं का देश
अब सिर्फ केवल
बचा है
कोलाहल और क्लेश.
आसूओं में दर्द
की
बह रही तश्वीर
इस देश की हे
विधाता
कैसी है तक़दीर.
निर्दयता के पावस
घन पर
बार-बार कम्पित
होता मन
क्रूर वक्त की
मलीन पृष्ठ पर
भर आएगा सहज ये
नयन.
सबने देखा
देशप्रेमियो का
उत्सर्ग किया
अरमान अलौकिक
अंध क्रोध में
भरकर सबने
लौटाया सम्मान
चतुर्दिक.
असीम अखंड
आत्मभाव
जिस देश में अनंत
है
वही ऋषि भूमि अपना
विश्व में बस एक
है.