Tuesday 12 July 2022

गुरु –पूर्णिमा- पूर्णता के प्रतीक

 

भारत को जगत-गुरु की उपमा दी जाती है क्योंकि उसने विश्व मानवता का न केवल मार्गदर्शन किया बल्कि अनगिनत आदर्शों को जीवन में उतारकर प्रेरणा का श्रोत बना .गुरु -शिष्य के परस्पर महान संबंधों एवं समर्पण-भाव द्वारा ज्ञान –प्राप्ति का विवरण ,शास्त्रों में स्थान-स्थान पर मिलता है .भगवान श्रीराम गुरु विश्वामित्र के हर आदेश का पालन प्राण से बढ़कर करते थे .परम आनंद भगवान श्रीकृष्ण भी  गुरु संदीपनी के आश्रम में हर छोटे –छोटे कार्य बड़े ही उत्साह के साथ करते थे . गुरु –भक्त आरुणि, गुरु के आदेश पर खुद को पूर्ण समर्पित कर दिये थे.ऐसे ही कई गाथाऐं हमें अपने जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते है .गुरु को मानवी चेतना का मर्मज्ञ माना गया है. उनका प्रयास यही होता है कि डांट से पुचकार से तथा अन्यतर उपाय के द्वारा भी अपने शिष्य को हर दुर्गुण से निर्मल बना दे.प्राचीनकाल में गुरु के सानिध्य से शिष्यों को कठिनाइयों से संघर्ष करने की अपार  शक्ति होती थी.वार्तालाप-विश्लेषण के द्वारा उनमे चिंतन की प्रवृति जगती थी .साधना-स्वाध्याय से आत्मज्ञान की अनुभूति होती थी .वे ज्ञान,गुण व शक्ति के पुंज होकर निकलते थे .इसीलिए उनको भौतिक सुखों की नहीं कर्तव्य व सेवा की समझ की विकसित होती थी . गुरु-शिष्य का संबंध आध्यात्मिक स्तर का होता था .शिष्य के संबंध में उपनिषद्कार कहते हैं कि---हाथ में समिधा लेकर शिष्य गुरु के पास क्यों जाते थे .इसीलिए कि समिधा आग पकड़ती है .गुरु के ज्ञान भी जीती-जागती ज्वाला ही है .ज्ञान के अग्नि में तपकर वह भी ज्ञान-प्रकाश फैलानेवाले सिद्ध गुरु बने.गुरु जो कहे बिना कोई तर्क किये उस कार्य को करना साधना कहलाता है .गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं ----


"गुरु के वचन प्रतीत न जेहि
सपनेहूं सुख सुलभ न तेहि"

गुरु के निर्देशों का पालन करने वालों को,जी भरके गुरु का अनुदान मिलता है .श्रद्धा की  परिपक्वता, समर्पण की पूर्णता शिष्य में अनंत संभावनाओं के द्वार खोल देते हैं. संत कवीरजी ने कहा है -
"गुरु गोविन्द दोउ खड़े
   काके लागूं पाय
  बलिहारी गुरु आपनो
  गोविन्द दीयो बताय"

गुरु के द्वारा ही भगवान के अनंत रूप का दर्शन होता है .ईश्वर की कृपा जीवन में चरितार्थ होती है .यहीं से आरम्भ होता है “तमसो मा ज्योतिर्गमय”. यही महामंत्र सक्रिय व साकार रूप लेकर हमारे जीवन को सुन्दर और सुखद बनाते हैं .आज वैदिकयुग के सारे संस्कार में दोष आ गए हैं .गुरु शिष्य दोनों के ही आचरण पूर्णतः बदल गये हैं .शिक्षक अध्ययन को विक्रेता बना कर बेच रहे हैं ,छात्र उसे मुहमांगी मूल्य पर खरीद रहे हैं.आज शिक्षा पूर्ण-पेशा बन चुका है.एक दुसरे के प्रति न मान है न सम्मान है न शुद्ध आचरण है .ये छात्र जो जिज्ञासु हो कर शिक्षक के चरणों में नत हो सकते थे, ज्ञान-पिपासु हो कर उनके संवेदना में बह सकते थे वो पूरी परम्परा ख़त्म हो रही है. आज फिर से वैदिकयुग की पुनरावृति की आवश्यकता है .समाज के अविष्कारक शिक्षक ही होते हैं जो छात्रों में नैतिक,सामाजिक एवं अध्यात्मिक मूल्य को घोलते हैं जिससे वो जीवन जीने की कला अनिवार्य रूप से सीखते हैं. ये पावन दिवस तम को हरने वाली गुरु-पूर्णिमा
सबके जीवन में शुभता भरे. क्यों न आज से ही स्वनिर्माण की शुरुआत करें.


          आदर्श गुरु ----

गुरु वही जो तम को हरते

श्रेष्ठ सदा भगवन से होते

                  गहन-मनन चिंतन ही करते            

                   ज्ञान-पुंज वो हरदम होते.

        आदर्श शिष्य --------

जो सदा जिज्ञासु होते

ज्ञान-पिपाशु होकर पीते

गुरु का जो करते सम्मान

 कहलाते वो शिष्य महान.

भारती दास ✍️

10 comments:

  1. गुरु पूर्णिमा पर सुंदर पोस्ट, बहुत बहुत शुभकामनाएँ

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  2. धन्यवाद अनीता जी
    गुरू पूर्णिमा के अवसर पर आपको भी हार्दिक शुभकामनाएं

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  3. गुरु की कृपा बनी रहे

    बहुत सुंदर आलेख

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  4. धन्यवाद सर

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  5. बहुत सुंदर आलेख।

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  6. धन्यवाद ज्योति जी

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  7. गुरु महिमा को बताती बहुत ही सु्न्दर एवं सार्थक लेख।

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  8. धन्यवाद सुधा जी

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  9. गुरु और शिष्य पर बहुत सुंदर सराहनीय पोस्ट !

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  10. धन्यवाद जिज्ञासा जी

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