Tuesday, 31 July 2018

हे मानव मत मानवता छोडो


अमावसी गगन में जैसे
अंजन सा दिखता अंधकार
दिशा का ज्ञान कराती वैसे
तारों का स्नेहिल उपकार.
एक मात्र आशायें भरकर
नेत्र देखता है संसार
धरा घूमती रहती हरपल
लेकर ढेरों भाव उदार.
मूंदें पलकें उर में झांकें
छिपा ह्रदय में अतिशय प्यार
कनक प्रभात से झरते जैसे
दिग-दिगंत का शुभ्र श्रृंगार.
दुर्बल धारणा चेतनता की
मन को उलझता हर बार
क्या है सुख ये कौन कहे
मूक संताप का बढ़ता भार.
मानव-दानव बनकर बैठा
प्राणों का करता व्यापार
मित्र-बंधु सब भूल गये हैं
शत्रुपूर्ण करता व्यवहार.
महामुनि का श्रेष्ठ वचन है 
हे मानव, मानवता को जोड़ो
अजेय है बल-शक्ति तुम्हारी
क्रोध -विध्वंस द्रोह को छोडो.
गिरा कहाँ ये समझ न आया
दया-धर्म मानव-संस्कार
व्यर्थ अभिमान में जीते लोग
छोड़ जाते सुख मोह के द्वार.       
   

        

Saturday, 30 June 2018

आये कौन दिशा से सजल घन


आये कौन दिशा से सजल घन
बरसाये तुम जल-कण , आये....
दिशा-दिशा से घूम के आये
स्वजन नेह सन्देश सुनाये
छलक उठा है लोचन
बरसाये तुम जल-कण , आये ....
तृप्त हुए वसुधा के अंतर
उर के मयूरा नाचे मन-भर
पुलक उठा चित्त उपवन
बरसाये तुम जल-कण , आये ....
पगडंडी खेतों के सूखे
पलक बिछाये रास्ता देखे
हर्ष उठा है कण-कण
बरसाये तुम जल-कण , आये ....
उजले-उजले बूंदे गिरते
तड़ित मेह में लुक-छिप करते
उमंग भरा है तन-मन
बरसाये तुम जल-कण , आये....      
   

Saturday, 9 June 2018

ग्रीष्म की छुट्टियाँ बीती सुनहरी [ बाल-कविता]


ग्रीष्म की छुट्टियाँ बीती सुनहरी
अब दृष्टि स्कूल पर ठहरी
हर्ष-विषाद है अंतस नगरी
अश्क बहाता दृग की गगरी .
तपा बदन जो चारों पहर था
बहा पवन पर स्वेद भरा था
अस्त-व्यस्त हो घूम रहा था
थी तपन-भरी वो दोपहरी.
देकर मीठी थपकी सुलाती
परियों वाली कथा सुनाती
दादी-नानी प्रेम जताती
थी हरदम वो स्नेहभरी.
गुजर गया दिन पलक-झपक
चिंता बनकर समायी मस्तक
पढनी होगी पोथी-पुस्तक
व्यथा यही है अब तो बड़ी.     

Wednesday, 30 May 2018

वक्त से ही उत्थान-पतन है


आवेग पवन का सह नहीं पाया
गिरा तरु से एक हरी छाया
नींद से बोझिल थकी सी आँखें
बदहवास-सी उखड़ी सांसें
तारों भरी थी काली रात
दुबक के पड़ गयी वो चुपचाप
नहीं था अब वो चैन का बिस्तर
नहीं था कोई प्यारा सहचर
टहनी पर वो टिक नहीं पाई
दुनिया से कुछ कह नहीं पाई
बेरंग रात-दिन गुजर गया
हुई हताश रूह मर गया
रिश्तों का डाल टूट गया
वो मुरझा गयी सब छूट गया
लता-पत्र की छिन गयी डाली
मिटी अनंत सुख-खुशहाली
जब टूटकर गिरती उमंगें
बिखर सी जाती स्वप्न बहुरंगे
वक्त से ही उत्सव सा मन है 
वक्त से ही उत्थान-पतन है  
दृश्य-अदृश्य रूप है चिंतन की
पादप हो या मानव-जन की.      
भारती दास ✍️ 

Sunday, 29 April 2018

विषैले बेल की तरह


विषैले बेल की तरह 
फैलता ही जा रहा है  
निर्दोष-नौजवानों का
रक्त पीता जा रहा है.
अन्याय का अपकर्ष का
विद्रोह का विध्वंस का
प्रतिशोध से अनगिनत ही
दंश देता जा रहा है.
ईर्ष्या-द्वेष हाहाकार है
विवश-विकल चीत्कार है
प्रतिभावान छात्र तो
व्यंग्य बनता जा रहा है.
पुण्य या दुष्पाप है
संघर्ष या अभिशाप है
आरक्षण की मार से
निष्पंद-स्वप्न हो रहा है.
मार-काट-क्रूरता
अनय की कठोरता      
क्रोध बन फूटता
कलह-बैर-दुष्टता
जातिगत-जड़ता
कलंक बनता जा रहा है.
भारती दास ✍️