संजीदगी
जिसने निभाई
जो संजीदा हुआ यहां
उसका मकसद उसका जीना
प्रवाह प्रकाश का हुआ यहां.
अपमान-मान-अभिमान त्यागकर
धीरता को अपनाया है
ढाल एकता का बनाकर
विषाद गंभीर मिटाया है.
धीरज चित्त से अन्न उगाता
स्थिर होकर देखता बाट
श्रम के साधक पुलकित हो कर
सहयोग सिखा देता है विराट.
ध्येय हो कोई लक्ष्य हो कैसा
कार्य धैर्य से करना है
संजीदगी का सुंदर भूषण
खुद में धारण करना है.
मदिरा की खुल गई दुकानें
मौत के नाम जाम हुआ है
महीनों की जो थी तपस्या
पल भर में ही नाकाम हुआ है.
धीर गंभीर संवेदन मन में
सुख सिमट कर आता है
विकृत होती मानसिकता से
प्रीत विकट बन जाता है.
कर्महीनता दुर्योधन की
स्पर्धाओं से रहा अधीर
दुर्बलता थी धृतराष्ट्र की
मोह को समझा था गंभीर.
भारती दास ✍️
जो संजीदा हुआ यहां
उसका मकसद उसका जीना
प्रवाह प्रकाश का हुआ यहां.
अपमान-मान-अभिमान त्यागकर
धीरता को अपनाया है
ढाल एकता का बनाकर
विषाद गंभीर मिटाया है.
धीरज चित्त से अन्न उगाता
स्थिर होकर देखता बाट
श्रम के साधक पुलकित हो कर
सहयोग सिखा देता है विराट.
ध्येय हो कोई लक्ष्य हो कैसा
कार्य धैर्य से करना है
संजीदगी का सुंदर भूषण
खुद में धारण करना है.
मदिरा की खुल गई दुकानें
मौत के नाम जाम हुआ है
महीनों की जो थी तपस्या
पल भर में ही नाकाम हुआ है.
धीर गंभीर संवेदन मन में
सुख सिमट कर आता है
विकृत होती मानसिकता से
प्रीत विकट बन जाता है.
कर्महीनता दुर्योधन की
स्पर्धाओं से रहा अधीर
दुर्बलता थी धृतराष्ट्र की
मोह को समझा था गंभीर.
भारती दास ✍️
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में सोमवार 11 मई 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
ReplyDeleteपुत्र के मोह में कुल का सर्वनाश करने वाले पिता की भाँति अपनी लालसा की महत्वाकांक्षा में मनुष्य सही गलत का भेद भूल जाता है।
ReplyDeleteभारती जी सुंदर संदेशात्मक रचना।
सादर।
धन्यवाद श्वेता जी
Deleteवाह!खूबसूरत सृजन ।
ReplyDeleteधन्यवाद शुभा जी
ReplyDeleteधन्यवाद शुभा जी
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर एवं मार्मिक अभिव्यक्ति आदरणीया दीदी.
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद अनीता जी
ReplyDeleteWow apne ye bahut khub Vachan Likhe hai.
ReplyDeleteधन्यवाद उमेश जी
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