Thursday, 14 May 2020

नव किसलय को कंठ लगाते


सुबह सवेरे विहग ये सारे
बहुरंगी पंखों को पसारे
एक स्वर से चिढा-चिढाकर
मंद-मंद मुस्का-मुस्काकर
कोलाहल करते रहते हैं
मखौल उड़ा-उड़ा हंसते हैं
सड़कें गलियां बंद हुये हैं
पशु पक्षी स्वछंद हुये हैं
मानव पिंजरबद्ध हुये हैं
खत्म गुमान और   दंभ हुये हैं
पर्यावरण का कोना-कोना
निखर गया है रुप सलोना
गंगा प्रदूषण मुक्त हुयी है
पुण्य सलिला स्वच्छ हुयी है
सीख सदा हरवक्त मिली है
कर्म अनैतिक दुखद हुयी है
छाया है पुष्पों पर खुमार
तरूण भ्रमर करते गुंजार
मुग्ध प्रकृति इठलाती अपार
शुद्ध चमन में बहती बयार
सुरभित सुमन सुगंध बरसाते
नव किसलय को कंठ लगाते
हर्षित खग-कुल कलरव करतें
जगत हाल पर अचरज करते.
परिहास करो ना विहग बालिके
क्षण परिवर्तित होते रहते
दुख जाने पर सुख ही आते
बंद भाग्य फिर खुल ही जाते.
भारती दास ✍️




11 comments:

  1. बहुत बहुत धन्यवाद सर

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  2. बहुत बहुत धन्यवाद सर

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  3. धन्यवाद अनीता जी

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  4. धन्यवाद अनुराधा जी

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  5. सुन्दर भावपूर्ण रचना ... सच है एक सा समय नहीं रहता कभी ...
    प्रकृति अपना बदलाव लाती है ...

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  6. बहुत सुंदर सृजन
    बधाई

    पढ़े-- लौट रहे हैं अपने गांव

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  7. धन्यवाद सर

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