नियति कैसी हुई है अपनी
प्राण, दास बनकर बैठा है
सतत् संघर्ष भरा है पथ में
दुर्बल तन-मन ऊब चुका है।
शीत पवन के शक्ति बल से
थककर मैं तो गिरी बहुत हूं
निर्बल बनकर रही हमेशा
ताप भ्रांति की सही बहुत हूं।
रजनी निद्रा के संग में यूं
जब भी मन विचलित होता है
अदृश्य रूप वाणी ये कहती
ईश का साथ सदा होता है।
मस्तक में छाई अतृप्ति
चिर विषाद बन जाता है
यही विडंबना है जीवन का
अवसाद अश्क बन बह जाता है।
भारती दास ✍️