तृण-तृण में सौन्दर्य सुहावन
कण-कण में है मोद का दर्पण
क्षमा-दया है जीवन-दर्शन
संस्कृति में है चिर अपनापन
उसी पुण्यमयी धरणी का
करते हैं आराधन,
जय मातृभूमि मनभावन....।
बेला-गुलाब-चंपा का हँसमुख
पुष्प चढ़ाते जिनके सम्मुख
मोर-पपीहा-कोयल-बुलबुल
गाते सुन्दर सरगम का सुर
भारत माता के चरणों में
प्रकृति करती अभिवादन,
जय मातृभूमि मनभावन....।
गर्मी तपाती वर्षा भींगाती
हेमंत-शिशिर की निशा कँपाती
शरद ऋतु का चंद्र सुहाता
वसंत ऋतु मन को हर्षाता
रोम-रोम सुख दर्शित होता
हँसता वसुधा का प्राँगन,
जय मातृभूमि मनभावन....।
अन्न नीर से पोषित करती
सुखद समीर साँसों में भरती
गिरि शिखर से उतर-उतरकर
चंचल निर्मल जल बह-बहकर
झरना-ताल-नदी-सरोवर
भू-गोद समाता है पावन,
जय मातृभूमि मनभावन....।
भारती दास ✍️
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