हिरण कपिला नदी के संगम
वृक्ष के नीचे बैठे मोहन
शीतल-पवन मधुर मन-भावन
मोर-पंख सुन्दर सुख आनन
ध्यान में लीन थे
बांकेबिहारी
स्मरण हो आया माता
गांधारी
यदु-कुल नाश का शाप दिया
था
कुपित व्यथित अभिशाप दिया
था
यह सोचकर केशव घबराये
मन-पीड़ा से नयन भर आये
एक तीक्ष्ण एहसास हुआ
दायें तलवे को छेद गया
ध्यानस्थ कृष्ण ने खोली
आँखे
असीम वेदना से निकली आहें
एक नुकीला तीर लगा था
उष्ण-रुधिर की धार बहा था
उसी समय झाड़ी से निकला
शिकार देखने को वो मचला
बहेलिये का नाम “जरा” था
जिस के हाथों वध हुआ था
रक्त-धार से भूमि लाल था
डर से जरा का बुरा हाल था
प्रभु-प्रभु कर चीत्कार
उठा
भयभीत हुआ वो कांप उठा
ओह ये मैंने क्या कर डाला
अपने प्रभु को मार
ही डाला
हे प्रभु मुझको माफ़ करे
मैंने पाप किया अपराध भरे
आत्मग्लानि से जरा घबराया
नयन-नीर से प्रभु पग धोया
नहीं कोई तुझसे पाप हुआ
ये होना ही था जो आज हुआ
माता गांधारी का था शाप
प्रारब्ध रचा है अपने आप
तुम पाप-मुक्त हो आत्म
शुद्ध हो
तुम तो केवल निमित मात्र
हो
वही कृष्ण जो जग पूजित थे
आज बड़े विचलित हुए थे
कुछ ही पल अब शेष है मेरा
एक कार्य करो विशेष है
मेरा
मेरे सखा अर्जुन से कहना
मुझको अब स्वधाम है जाना
इस देह से कुछ नहीं लेना
वो जो चाहे इसको करना
इक सन्देश राधा को देना
हुआ जरुरी जग से जाना
यह कहकर अचेत हुए
अनंत रूप समेट लिए
आँखों से गुजरा जमाना
ब्रजभूमि में लीला करना
यमुना किनारे गाय चराना
गोपियों के संग रास
रचाना
राधा का वो प्रणय निवेदन
मिला न इस जनम में तन-मन
एक युग-पुरुष का अंत हुआ
उनका जीवन मंद हुआ
ये अनंत की अंतिम बेला
छोड़ गए जग नन्द-गोपाला .
भारती दास
गांधीनगर ,गुजरात