Sunday, 30 April 2017

श्रमेव जयते



प्रथम किरण जब भू को छूती
जब विहग-बालिके करती शोर
मौन होकर श्रमिक निकलते
कार्य वे करते भाव-विभोर.
जेठ की तपती धूप वे सहते
बारिश के सहते बौछार
अनासक्त होकर श्रम करते
हो क्षुधा-पीड़ित चाहे बेजार.
साधनहीन है गांव आज भी
अभावग्रस्त है ढेरों किसान
ग्राम उजड़ते जाते हैं पर
नगरों का करते उत्थान.
बंजर-भूमि को तोड़ते रहते
अथक परिश्रम करते पुरजोर
श्रमिक-श्रम करते ही रहते
अनवरत पत्थर को तोड़.
तब व्यर्थ है पूजन-भजन
व्यर्थ है ईश की आराधना
श्रमेव की जय हो वहां पर
जहाँ श्रमिक करते हैं साधना.       
भारती दास ✍️      

Sunday, 19 March 2017

चाँद फिर झांका खिड़की से



चाँद फिर झांका खिड़की से
विहंस उठा मेरी झिड़की से
चाँद फिर झांका खिड़की से....
चुपके चुपके दबे पांव से
वो आता हर शहर गांव से
मन को मोहता दुग्ध-हंसी से
चाँद फिर झांका खिड़की से....
दुःख के साथी सुख के साथी
कहता हम हैं सच्चा साथी
कह डालो हर बात ख़ुशी से
चाँद फिर झांका खिड़की से....
वो बढ़ता है वो घटता है
पथ पर यूँ चलते रहता है
उसे बैर ना क्लेश किसी से
चाँद फिर झांका खिड़की से....
दूर गगन में वो रहता है
कही-अनकही सब सुनता है
कुछ समझाता वो चुप्पी से
चाँद फिर झांका खिरकी से....         
भारती दास ✍️

Saturday, 4 March 2017

ओ बसंती उन्मत पवन



ओ बसंती उन्मत पवन
महसूस कर दर्दे चमन
निहार जरा कातर नयन
फिर बढ़ाना तुम कदम
तू निडर मगरूर है
मद में ही अपने चूर है
तू लाचार ना मजबूर है
फिर क्यों जमीं से दूर है
अब छोड़ दे आवारापन
ये उन्मादी अक्खड़पन
बांध ले चंचल सा मन
कब समझेगा तू अवकुंठन
कांप उठा है पेड़ बबूल
बिखरा है पथ पर ढेरों शूल
जीवन लघु है मत ये भूल
कर युग साधना तू कबूल.   
भारती दास ✍️

Thursday, 23 February 2017

हे भूतेश्वर हे दिगंबर



हे भूतेश्वर हे दिगंबर
तुम सर्वव्यापी नाथ शंकर
सांसों में साकार बसकर
प्राणों में आधार बनकर
करुणा के आगार होकर
दुष्टों को संहार कर-हर
जन पे कर उपकार विषधर
तुम रहो न हास्य बनकर
कर दया अब भक्त-जन पर
नेत्र खोलो हे ज्ञानेश्वर
ये है अवसर हे महेश्वर
देव आओ स्वर्ग तजकर.
भारती दास ✍️ 
HAPPY MAHASHIV RATRI