ऊँचे ऊँचे पर्वत पर भी
सागर की गहराई में भी
सारे देश में गूँज उठी है
भारत की आत्मा हिन्दी है ।
आसामी-गुजराती-मराठी
क्षेत्रीय भाषा सबको नही आती
फिर भी रहते मिलकर साथी
नहीं उठाते भाषा पर लाठी ।
एक ही धरती एक ही आह्वान
था रूदन-क्रंदन एक समान
देश हित पर बलिदान हुये थे
उत्सर्ग सबने प्राण किये थे ।
जिनके कार्यों से उन्नति आई
प्रगति की परचम भी लहराई
उनके साथ ही हुई हाथापाई
संकट अनेकों जीवन में आई ।
हिंसा-हत्या करने का बहाना
समर भूमि भारत को बनाना
निर्दोषों को अपमानित करना
मजदूरों को प्रताड़ित करना ।
राजनीति की यह गंदी प्रथा है
भाषा विवाद मन की कुंठा है
उपद्रवियों की अपराधी धंधा है
विकास की राह में हिन्दी सदा है ।
भारती दास ✍️
सुन्दर
ReplyDeleteहिन्दी ...भावनात्मक, आत्मकथ्यात्मक अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २५ जुलाई २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति!
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