Tuesday, 14 January 2025

उड़ गयी पतंगें जहां दिवाकर


अपने मृदु पंखों को फैलाकर

उड़ गयी पतंगें जहां दिवाकर 

अधखुली पलकों से रही निहार

दूर मैं आई क्षितिज के पार।

इठलाती नखरे दिखलाती

मुस्कुराती अंगराई लेती

अरमान अनेकों लेकर जाती

गगन में सारे रंग सजाती।

जिस पवन के झोंके ने 

गतिमान होने का मंत्र दिया 

वही प्रचंड वायु का प्रहार 

भू पर औंधे मुंह गिराया।

व्यथित होकर आंसू बहाती 

देती अपना जीवन हार

उर में प्रिय का पुलक बसाकर 

मूंद लेती है दृग के द्वार।

भारती दास ✍️

1 comment: