अपने मृदु पंखों को फैलाकर
उड़ गयी पतंगें जहां दिवाकर
अधखुली पलकों से रही निहार
दूर मैं आई क्षितिज के पार।
इठलाती नखरे दिखलाती
मुस्कुराती अंगराई लेती
अरमान अनेकों लेकर जाती
गगन में सारे रंग सजाती।
जिस पवन के झोंके ने
गतिमान होने का मंत्र दिया
वही प्रचंड वायु का प्रहार
भू पर औंधे मुंह गिराया।
व्यथित होकर आंसू बहाती
देती अपना जीवन हार
उर में प्रिय का पुलक बसाकर
मूंद लेती है दृग के द्वार।
भारती दास ✍️
सुन्दर
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