Sunday 30 June 2024

विह्वल होती यह धरती है

 


पीले पीले तरू पत्रों पर

दिखी आज तरूनाई है 

अंतर के कोलाहल में भी 

हर्ष सुखद फिर छाई है।

धरा पुत्र स्वार्थी बन बैठा 

क्लांत प्रकृति अकुलाईं है 

सुख अमृत दुख गरल बना है 

चोट स्पंदन की दुखदाई है।

शीतल पवन गाता था पुलकित 

हृदय कुसुम खिल जाते थे

अतृप्त मही की दृष्टि पाकर

व्योम तरल कर देते थे।

प्रीत रीत से भी है ऊपर

जैसे नभ के घनमय चादर

प्रेम से भरकर बूंदें गिरते 

भू के हर कोने में जाकर।

उमड़ घुमड़ कर मेघ गरजते 

बिजली चमचम करती है 

तृण-तृण पुलक उठा है सुख से 

विह्वल होती ये धरती है।

भारती दास ✍️ 


1 comment:

  1. प्रकृति के सौंदर्य का सुंदर वर्णन

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