Saturday 30 April 2022

अपना स्वेद बहाते हैं वो

 

दिन डूबा संध्या उतरी है 

पशुओं की कतार सजी है

खेतों और खलिहानों से

आने को तैयार खड़ी है.

बिखरी लट है कृषक बाला की

मलीन है उसका मुख मस्तक भी

कठिन परिश्रम करने पर भी 

दीन दशा गमगीन है उसकी.

स्वर्ण सज्जित भवन हो उन की 

चाह नहीं है ऐसी मन की

मिले पेट भर खाने को 

दर्द वेदना ना हो तन की.

दीनता का रूधिर पीकर

जीते हैं रातों को जगकर

भूमि का भी हृदय क्षोभ से

रह जाते है कंपित होकर.

धूपों में बरसातों में भी

तपते भींगते रहते हैं जो

वही गरीबी को अपनाकर

निष्ठुर पीड़ा सहते हैं वो.

विटप छांह के नीचे बैठे

गीले गात सुखाते हैं 

कामों में फिर हो तल्लीन

अपना स्वेद बहाते हैं.

भारती दास ✍️





14 comments:

  1. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति 👌

    ReplyDelete
  2. बहुत बहुत धन्यवाद रुपा जी

    ReplyDelete
  3. मार्मिक रचना

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद अनीता जी

      Delete
  4. बहुत अच्छी रचना

    ReplyDelete
  5. दीनता का रूधिर पीकर
    जीते हैं रातों को जगकर
    भूमि का भी हृदय क्षोभ से
    रह जाते है कंपित होकर... मर्म स्पर्शी सृजन।
    सादर

    ReplyDelete
  6. धन्यवाद अनीता जी

    ReplyDelete
  7. मर्म स्पर्शी सृजन।

    ReplyDelete
  8. सुन्दर भावपूर्ण सृजन

    ReplyDelete