Saturday, 15 June 2019

हे परमपिता


वो छांव थे वो धूप थे
वो सौम्य सुखमय रुप थे
था मोद का नहीं ओर-छोर
सुख वृष्टि था चारों ही ओर
नित दिन सुखद होता था भोर
था स्नेह की मजबूत डोर
मन एक था एक भाव था
सबका सरल स्वभाव था
शंका नहीं बस प्यार था
अनुपम सी नेह दुलार था
खो गये कहां हे परमपिता
वो करूणा भरे प्यारे पिता.

भारती दास


9 comments:

  1. वो छांव थे वो धूप थे
    वो सौम्य सुखमय रुप थे...
    पिता के प्रति यही आसक्ति, पुत्र/पुत्री धर्म का धोतक होती हैं ।
    कुछ ही पंक्तियों में सब कुछ बयाँ करती है ये रचना। बहुत-बहुत बधाई आदरणीया भारती जी ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद पुरुषोत्तम जी

      Delete
  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (17-06-2019) को "पितृत्व की छाँव" (चर्चा अंक- 3369) (चर्चा अंक- 3362) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    पिता दिवस की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete
  3. बहुत ही सुन्दर रचना
    सादर

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद अनिता जी

      Delete
  4. सुंदर भाव

    ReplyDelete
  5. धन्यवाद अनिता जी

    ReplyDelete
  6. यह कविता हमें उस समय की याद दिलाती है जब सबके बीच सच्चा प्यार, विश्वास और दया का माहौल था। इसमें सिर्फ अपने सुख की नहीं, बल्कि सबके साथ मिलकर जीने की बात दिखाई देती है। यह बताती है कि असली खुशी चीज़ों में नहीं, बल्कि अपनेपन, सादगी और एक-दूसरे से जुड़ेपन में है।

    ReplyDelete