‘’ अपने तपे – तपाये जीवन
सधे – सधाए
सुन्दर ये मन
कर दो जन समुदाय
को अर्पण
नीलकंठ सा करो
विष –शमन
भटक रही मनु की
संतान
अंधकार में है
उसकी ज्ञान ‘’
मानव पीड़ा से गला
भरा था
आँखों से नीर छलक
पड़ा था
गुरु गोविन्द ने
दिया आदेश
सर झुका अपनाया
क्लेश
बंदा ने छुपाया
अपनी वेश
हित में सबकी सोची
शेष
वो सारी पहचान गयी
थी
बचपन की बातें
तमाम गयी थी
गुरु का बंदा बन
खड़ा था
बंदा वैरागी नाम पड़ा
था
बलि भूमि पंजाब
का हाल
तलवार उठाई वो
तत्काल
धर्मयुद्ध का आरंभ
किया था
यवन शासन का अंत
किया था
सतलज से यमुना एक
किया
बंदा ने सरहिंद
जीत लिया
पजाब को स्वाधीन
किया
धर्म ध्वजा पहरा
ही दिया
बलिदान हुए
अनगिनत वीर
गुरुद्वारा में
सजा यादों का पीर
औरंगजेव ने हमला
बोला
बंदा-वैरागी को मौत मिला
वीभत्स मृत्यु का
दण्ड दिया
आनंद हंसी का बंद
किया
धर्म-वीर सच्चा
वैरागी
नश्वर काया को छोड़ा
त्यागी
आत्मा उनकी करती
पुकार
पीड़ित जनों की
सुनो गुहार
गुरु के बन्दे ना
हो अनजान
कर्तव्य-कर्म की
करो पहचान.
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