Saturday, 26 April 2014

वृतियों से हो समर हमारा



व्यक्ति वृतियां और व्यवधान

अवरोध बढाती इच्छा तमाम

कदम-कदम पर दुर्गम होता

क्षण-प्रतिक्षण जटिलतम होता

व्यक्ति सब निर्दोष ही होता

दुष्प्रवृति ही सब दोष करता

जबतक वृतियां दूषित-कलुषित है

तबतक व्यक्ति भी संकुचित है

वृति उन्मूलन है आवश्यक

कृति संवर्धन अत्यावश्यक

सृजन-सैनिकों का सामर्थ्य

है व्यापक अनुरूप उत्कर्ष

संधर्ष बिना सौभाग्य कहाँ

प्रतिभा वंचित रहती जहाँ

मनोग्रंथियाँ भरती मन में

कठिनाईयाँ रहती जीवन में

चिंतन-चरित्र भाव-व्यवहार

मानव को है प्रभु का उपहार

नेक सोच वालों से होगा

वृतियों में परिवर्तन शोभा

है अनुरोध विनती पुकार

दुष्प्रवृति बदले करे सुधार

शुरुआत करे अपने जीवन से

वृति हटे और स्नेह हो जन से

व्यक्ति से न हो किनारा

वृतियों से ही समर हमारा .

Friday, 18 April 2014

युग परिवर्तन की है वेला

आज सभी की चाह यही है
सबकी मांग अथाह यही है
सभ्य समाज की हो निर्माण
हो श्रेष्ठ सुन्दर अभियान
अनगिनत दुष्प्रवृति भरी है
कलह-कपट कुरीति भरी है
शोक-संताप देरों है व्याप्त
निदान-समाधान नहीं प्रयाप्त
नीति बदले रीती बदले
सोच-समझ की विधि भी बदले
एक सा वेग हो सबके मन में
एक आवेग हो सहगमन में
जातिवाद –क्षेत्रवाद न फैले
प्रांतवाद न हो विषैले
राष्ट्र-हीत की चिंता कर पाये
मानव-हीत की इच्छा रख पाये
भारतीयता की हो सम्मान
यही भारत की हो पहचान
दुर्गम पहाड़ी के शिखर पर
लड़ते सैनिक जानें देकर
जिसके दम से चैन से रहते
आज उन्ही की क़द्र न करते
नैतिक बौद्धिक क्रांति आये
पारदर्शी होकर दिखलाये
नेता नहीं सृजेता बनकर
लोक-हीत का प्रणेता बनकर
भगीरथ सा पुरुषार्थ दिखाएँ
राजनीती को सफल बनाएँ
परिवर्तन की मन आई है
सार्थक मिलन की क्षण आई है
युग परिवर्तन की है वेला
          तिमिर चीड़ कर हुआ उजाला .           

Friday, 11 April 2014

अपराध बोध




आर्य-श्रेष्ठ द्रोणाचार्य थे
शस्त्र-विद्या के आचार्य थे
शास्त्र में भी निपुण बड़े
लेते थे निर्णय खड़े-खड़े
धर्म में आस्था रखनेवाले
व्यूह की रचना करनेवाले
उर के व्यथा छुपा नहीं पाये
दुविधा में ही रात बिताये
अरे ये क्या मुझको हो रहा
बलहीन शिथिल क्यों हो रहा
स्वेद कण क्यों निकल रहा
दुर्बलता प्रतीत क्यों हो रहा
अर्जुन को मैंने शिक्षित किया
उस बालक को दण्डित किया
गुरु शिष्य की स्नेह डोर में
कर्तव्य पथ की बागडोर में
मैंने किया अनर्थ का काम
एक शिष्य को देकर नाम
सर्व श्रेष्ठ कहलाये अर्जुन
जग विख्यात हो जाये अर्जुन
युद्ध विद्या में था विख्यात
तीनों लोकों में प्रख्यात
धर्म युध्द के जानकर हम
अधर्म का करते वहिष्कार हम
एकलव्य को दुत्कार दिया
मैंने उससे दुर्व्यवहार किया
जाति वंश का भेद बताया
नीच कुल का विभेद कराया
कायर निकला मैं कमजोर
उस बालक से लगाया होड़
साहस कर करता स्वीकार
कर लेता उसको अंगीकार
वो था निर्मल मासूम बड़ा
नहीं बन सकता चुनौती भरा
निर्जीव मूरत को देकर प्राण
उसने किया मेरा सम्मान
समस्त भावना श्रद्धा सींचा
पारंगत बन  विद्या सीखा
जाति-धर्म से ऊपर उठकर
शिष्य बनाता उसको बेहतर
गुरु दक्षिणा में ली परीक्षा
झट पूरी की मेरी इच्छा
रक्तसनित अंगुष्ठ गिरा
नयनों में था अश्क भरा
उसका सपना हो गया चूर
मैंने किया उसको मजबूर
हुआ गुरु से शिष्य महान
जिसने किया सर्वश्व ही दान
अपराध बोध से मैं पीड़ित हूँ
आत्म दंश से मैं विचलित हूँ
इतिहास गुरु बेशक कहेगा
लेकिन मुझे ना श्रेष्ठ कहेगा  .