Sunday 28 August 2016

नव सृजन अब दूर नहीं है



बीज निकलकर पौधे बनते
पौधे बन जाते हैं पेड़
सहज प्रक्रिया चलती रहती
परिवर्तन की साँझ-सवेर.
सूरज ढलता शाम है आती
रात गुजरती होते भोर
नई सुबह उत्साह जगाती
विहाग बालिके करती शोर.
झर जाते हैं जीर्ण सुमन-दल
नये कुसुम खिल उठते हैं
दबे-छिपे संकेत ये कहते
कर्म से ही जीवन चलते हैं.
संघर्षरत है सारी दुनिया
असुरता के निर्मम घातों से
मृत्यु विचरती रहती पल-पल
क्रूर पाशविकता के हाथों से.
होता है विदा जगत से
मूढ़-आतंकी द्विज-विद्वान
कोई दग्ध करता भूतल को
कोई बनता देश की शान.
कालखंड में विद्यमान है
सबका व्यापक लेखा-जोखा
अजर-अमर नहीं हुआ है
मानव समाज की कोई ढांचा.
पहचानो निज कर्म को जानो
परिवर्तन अब दूर नहीं है
विषम-वेला का अब होगा अंत  
नव सृजन अब दूर नहीं है.  

Sunday 14 August 2016

नमामि भूमि वत्सले



आजादी के शुभ-दिवस पर
केसरिया रंगों में सजकर
वादे के गुच्छों को सजाकर
मर मिटने की कसमें खाकर
हर्षित होते अतिथि विशेष
कहते कुछ दयनीय परिवेश
दर्शाते मनोभाव का चित्रण
दशा-दिशा का ये परिवर्तन
अवर्ण-सवर्ण का भेद बताते
कुछ टुकड़े धर्मों का करते
कुछ विकास पर प्रश्न उठाते
कुछ भविष्य का चिन्तन करते
नौकरी शिक्षा सब में आरक्षण
जाति-विषमता घृणा-शोषण
क़तार में खड़े होते किशोर
सुनते भाषण भाव-विभोर   
निर्दोष-निर्बोध रहते बिखरते
विपदाओं के जाल में फंसते
प्रतिभायें कही भी जीती
कूड़े के ढेरों पर सोती
आज भी सख्त है गांव की पीड़ा
कठिन बड़ी है पीड़ित परंपरा
कष्ट यातना कब तक सहेगी
कब तक उन वादों में जियेगी
पर्वत के दुर्गम शिखरों पर
गुनाह का कृत्य चलता है निरंतर
अपनों के ही विश्वास घातों से
दिल टूट चूका है आघातों से  
आतुर होकर देखती है राह
मातृभूमि की व्याकुल निगाह
विकल हुई थी भूमि बड़ी
मगर संभल कर उठ पड़ी
सब कपूत नहीं है मिले
कुछ सपूत भी है भले
जो सदा हरपल कहे
नमामि  भूमि वत्सले
कर न तू शिकवे गिले
तू सदा फूले-फले
तेरे क़दमों के तले
उत्सर्ग जान कर चले.     

Thursday 4 August 2016

मनभावन सावन ऋतू आया



बादल पर बादल फिर छाया
मनभावन सावन ऋतू आया
बौछारे ये फुहारे जल की
बूंदे गिरती छम-छम करती
अनगिनत रूपों-रंगों में   
जाने कितने लय-छंदों में
उमड़-घुमड़ कर मेघ बरसते
मौन ह्रदय में हलचल करते
पवन झकोरे चूमते माथ
सिहर से जाते कोमल गात
भर प्राणों में पुलक घनेरी
प्रेम सजाता अंतस नगरी
नैनों में होता सम्मोहन
मन मोहती रुत ये पावन
मखमल सी पसरी हरियाली
कुसुम-कली खिल उठी निराली
रोम-रोम में अनुराग अपार
प्रियतम से करती मनुहार
झूले में बैठी मतवाली
हर्षित होकर देती ताली
सजा के पूजन की शुभ थाली
मंगल-गीत गाती है आलि
उमा-महेश बरसाये प्रीत
सौभाग्य-सजाये हरियाली तीज.