मही वंदिनी करती गुहार
करो बैर न यूँ ही प्रहार
करते रहे घायल ये मन
चिथड़े किये आँचल-वसन
नहीं शोभता जननी पर वार
मही वंदिनी करती गुहार....
रक्तों का होता है प्रवाह
अंग-अंग में है दर्द आह
बहता है दृग से अश्रु धार
मही वंदिनी करती गुहार....
तुम सारे मेरे पूत हो
नहीं भिन्न कोई रुप हो
चित्त से मिटाओ भ्रम विकार
मही वंदिनी करती गुहार....
सासों में बहता समीर है
मृदु गात पर अन्न नीर है
सहते कई पीड़ा का भार
मही वंदिनी करती गुहार....
ये सूर्य चंद्र उपहार है
निज सभ्यता ही संस्कार है
रखते मुखर आपस में प्यार
मही वंदिनी करती गुहार....
भारती दास✍️