Tuesday 25 May 2021

जन्म से ही उन्मुक्त जो बहती


अंधेरे हो या चाहे उजाले

सहम-सहम कर चलती सांसे

जन्म से ही उन्मुक्त जो बहती

वो स्पंदन भरती आहें.

उथल-पुथल सी मची हुई है

समय की बेबस धारे हैं

कुढ़ते खीजते वक़्त ये बीतते

विरान सी सांझ सकारे हैं.

द्वार-द्वार पर आंखें नम है

गम से भरे नजारे हैं

क्षुब्ध व्यथा से जूझ रहे हैं

टूटे जिनके सितारे हैं.

भव भय दूर नहीं होते हैं

संकट में तन मन सारे हैं

भूख प्यास से बिलखते अभागे

जो हुये अनाथ बेसहारे हैं

दुखी निराश हताश हृदय ने

संशय में हिम्मत हारे हैं.

विकल करुण निरीह की आशा

अब ईश्वर के ही सहारे हैं.

भारती दास ✍️.


10 comments:

  1. मर्मस्पर्शी और सच्चाई को बयां करती उत्कृष्ट रचना ।

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  2. धन्यवाद जिज्ञासा जी

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  3. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (३०-0६-२०२१) को
    'जी करता है किसी से मिल करके देखें'(चर्चा अंक- ४१११)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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    1. धन्यवाद अनीता जी

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  4. सार्थक भाव लिए हृदय स्पर्शी सृजन।

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    1. धन्यवाद कुसुम जी

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  5. बेहद हृदयस्पर्शी रचना

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  6. धन्यवाद अनुराधा जी

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  7. बेहतरीन अभिव्यक्ति 🙏

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  8. धन्यवाद शरद जी

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