दिन डूबा संध्या उतरी है
पशुओं की कतार सजी है
खेतों और खलिहानों से
आने को तैयार खड़ी है.
बिखरी लट है कृषक बाला की
मलीन है उसका मुख मस्तक भी
कठिन परिश्रम करने पर भी
दीन दशा गमगीन है उसकी.
स्वर्ण सज्जित भवन हो उन की
चाह नहीं है ऐसी मन की
मिले पेट भर खाने को
दर्द वेदना ना हो तन की.
दीनता का रूधिर पीकर
जीते हैं रातों को जगकर
भूमि का भी हृदय क्षोभ से
रह जाते है कंपित होकर.
धूपों में बरसातों में भी
तपते भींगते रहते हैं जो
वही गरीबी को अपनाकर
निष्ठुर पीड़ा सहते हैं वो.
विटप छांह के नीचे बैठे
गीले गात सुखाते हैं
कामों में फिर हो तल्लीन
अपना स्वेद बहाते हैं.
भारती दास ✍️