हजारों साल से भी पुरानी
रणगाथा की अमिट कहानी
शांतनु नाम के राजा एक
थे कर्मठ उदार-विवेक.
गंगा के सौंदर्य के आगे
झुक गये वे वीर अभागे
करनी थी शादी की बात
पर गंगा थी शर्त के साथ.
मुनि वशिष्ठ ने शाप दिया था
अष्ट वसु ने जन्म लिया था
देवतुल्य वसु थे अनेक
उनमें से थे देवव्रत एक.
कर्मनिष्ठ वे धर्मवीर थे
प्रशस्त पथ पर बढे वीर थे
अटल प्रतिज्ञा कर बैठे थे
विषम भार वो ले बैठे थे.
भीषण प्रण को लिए खड़े
नाम में उनके “भीष्म” जुड़े
भीष्मपितामह वो कहलाये
कौरव-पांडव वंश दो आये.
वंश बढा और बढ़ी थी शक्ति
पर दोनों में नहीं थी मैत्री
शत्रु सा था उनमें व्यवहार
इक-दूजे में नहीं था प्यार.
सत्ता कहती कौन सबल है
प्रजा चाहती कौन सुबल है
किसका पथ रहा है उज्जवल
कौन बनेगा अगला संबल.
राज्य-सिंहासन ही वो जड़ था
जिसमें मिटा सब वीर अमर था
अपमान-मान ने की परिहास
छीन ली जीवन की हर आस.
छल-कपट से जीत हो जिसकी
पुण्य-प्रताप मिटे जीवन की
बस स्वाभिमान यही था अंतिम
युद्ध ही एक परिणाम था अंतिम.
महाभारत की भीषण रण में
मिट गये वीर अनेक ही क्षण में
धरती हुई खून से लाल
बिछड़ गये माता से लाल.
शर-शय्या पर भीष्म पड़े थे
नेत्र से उनके अश्क झड़े थे
आँखों में जो स्वप्न भरे थे
बिखर-बिखर कर कहीं पड़े थे.
बैर द्वेष इर्ष्या अपमान
मिटा दिए वंशज महान
कुरुक्षेत्र का वो बलिदान
देती सीख हमें शुभ ज्ञान.
भारती दास✍️