Sunday, 22 May 2016

जेठ की तपती दोपहर



जेठ की तपती दोपहर
सूनी गलियां बेजान शहर
पदचाप सुनाई नहीं देते
द्वार घरों के बंद होते
भूले-भटके ही पथिक होते
कलरव-विहीन विहग होते
रवि अनल बन तपा रहा है  
कोमल बदन को जला रहा है
उष्ण पवन झुलसा रहा है
स्वेदकणों से भीगा रहा है
पादप विटप कुम्हला रही है  
व्याकुलता सी छा रही है  
पशुयें भी जान गवां रहे
राग-रुदन की सुना रहे
सुखी धरती चटक रही
बूंद-बूंद को तरस रही
किसान है इतने निराश
उजड़ती गृहस्थी टूटती आश
मरते मवेशी जलती खेती
असहाय बन देखती दृष्टि
झीले नदियाँ तालाब अनेक
फिर भी जल संकट है विशेष
त्राहि-त्राहि की मची है शोर
कब होगी बारिश घनघोर
बस मानसून जल्दी ही आये
रिम-झिम रिम-झिम जल बरसाये.  

भारती दास ✍️ 

Saturday, 14 May 2016

एक वो बिहार था



 थे वेदमंत्र के स्वर उभरते
पवित्र कुरान की पढ़ती आयत
न्याय की गरिमा बिखर गयी है
पाशविकता ने दी है आहट.
मोर्य वंश और गुप्त वंश का
स्वर्णिम युग था शासन काल
गर्वित होकर इतिहास सुनाती
उस सुन्दर पल-छिन का हाल.
विश्वविख्यात था नालंदा का
अनुपम सा शिक्षा-संस्थान
अर्थशास्त्र के हुए रचयिता
श्रेष्ठ गुरु चाणक्य महान.
बोधगया में ज्ञान को पाकर
गौतम बुद्ध बने भगवान
विश्व-शांति का सन्देश सुनाता
राजगीर का पावन धाम.
एक से बढ़कर एक हुए थे
नेता-कवि –लेखकविद्वान
देश पर जान लुटाने वाले
अनगिनत थे वीर तमाम.
आज कहीं दम तोड़ रही है
मानवता की हर पहचान
इंसानों की शक्ल में जैसे
घूम रहा उन्मत हैवान .
राजनीती हो गयी डरावनी
प्रतिशोध की ज्वाला है विकराल
वीभत्स मानसिकता के कारण
छिन जाते हैं माँ के लाल.
नेताओं की संतानों में
विलासिता ही है जंजाल
पशुता का ही परिचय देता
हिंसक बन जाता तत्काल.
वारदात होती ही रहती
तार – तार होती मानवता
शिक्षा की कोई मूल्य नहीं
रक्त-रंजित है अर्थ-व्यवस्था.
चिर-काल तक था जीवंत बन
उर में जज्बातों की फुहार
विश्वास का दीप फिर से जलेगा
आशंका है मन में अपार.    
भारती दास ✍️    
       

Saturday, 7 May 2016

माँ का मतलब ही होता है



अक्षरहीन हो चाहे माता
या विद्द्या से हो महान
करुणा-ममता एक सी होती
संवेदनायें होती है समान.
गर्भ में ही अस्तित्व निखरता
इक-दूजे में बसती है जान
विलीन होती रहती है लहरें
सागर में जिस तरह तमाम.
माँ का मतलब ही होता है
अंश में उसके जीवन पाना
अपने जिगर के टुकड़े में
खुद की छवि देख मुस्काना.
भावनायें विह्वल सी होती
उर में भी उदगारें भरती
अपनी संतानों में हरपल
पावन प्रेरणा भरती रहती.
उसके दर्द की आहट पाकर
बेचैन विकल सी वो हो जाती
त्याग-तितिक्षा की मूर्ति बन
दर्द अनेकों वो सह जाती.
जोश-होश उत्साह-धैर्य से
पालन-पोषण करती जाती
एक सुखद स्मित को पाकर
अवसाद-विषाद ग़मों को भूलाती.
गहरी नींद में सो ना पाती
निज सुख से होती है दूर
प्राण-प्रण से होती निछावर
स्नेह लूटाती है भरपूर.
जिस माँ से होती उत्पत्ति
सामर्थ्य हमारी जिससे बनती
उसी माँ को भूल ही जाते
जिसकी दूध ने दी थी शक्ति.      
भारती दास ✍️