Thursday, 30 April 2015

सिसक-सिसक जीवन थमा है


ये वक्त की बेवफाई है
दी दर्द की जो दुहाई है
देकर ग़मों के जलजला
करती बड़ी रुसवाई है.
कस देती है वो कसौटी पर
दंश देती है वो चुनौती पर
कुछ खोट होता है अगर
तड़पाती है वो विश्रांति पर.
दुःख की अति है उत्पीड़न
सुख की गति है परिपूरण
सायं-ऊषा की सपनों सा
होता मनुज का ये जीवन.
सृजन सिंचन और ये संहार
विधि का है क्यों ऐसा संसार
हे दिगंबर हे करतार
शोणितों में डूबा सुकुमार.
बन गया सिंदूर अंगार
गिरि ने उगला पावक-धार
कांप उठा है गृह के द्वार.
सहम उठा है भग्न विहार.
अश्रुओं के नीर अपार
रुधिर का निकला मुसलाधार
ओह भीषण है संहार
उठा दुआ में हाथ पसार.
निष्ठुर सा दुःख आन पड़ा है
अपनों का अवसान हुआ है
 नीरव नभ अवलोक रहा है
                       सिसक-सिसक जीवन जो थमा है              .                    
  

Friday, 24 April 2015

वो भिखारिणी


उघड़े बदन चिथड़े वसन
अतृप्त क्षुधा मूंदते नयन.
दयनीय सी वेश बिखरे से केश
मांगती है कुछ खाने को शेष.
धूप में जलती हुई
हाथों को मलती हुई
भीख वो मांगती हुई
मिन्नतें करती हुई.
खूबसूरत थी मगर
ओठ फटी सी खुली अधर
द्रृष्टि जाती है ठहर
आते-जाते लोग पर.
बड़े घर की बेटी होती
वेश-भूषा सुन्दर सी होती
गुड़िया जैसी दिखती होती
लोगों की परवाह वो होती.
लेकिन वो अनाथ है
कोई भी ना साथ है
ना किसी की आस है
बचपन कितनी उदास है.
मुट्ठी भर कुछ खाने को
बैठी है सबकुछ गंवाने को
क्या कहूँ इस अफसाने को
आँखें है बस भर आने को.
खुद ही में सिमट गयी मैं
उलझन में उलझ गयी मैं
निष्ठुर कपट हुई मैं
आकुल व्यथित हुई मैं.
वो अंतर्मन को छेड़ गयी
आखों में चित्र उकेर गयी
कुछ ही पल की देर हुयी
वो और कहीं पर दौड़ गयी.
दुनिया में है भेद अपार
कहीं पर तंगी कहीं तकरार
कही है व्याकुलता बेशुमार
कहीं है रोशनी कही अंधकार.
थी अश्रुपूरित सी रागिनी
माधुर्य रहित सी कामिनी
थी मनमोहक मनमोहिनी
वो कोमल सी भिखारिणी.              
      


Sunday, 19 April 2015

अधर्म निभाते धर्म-पुजारी


धर्म पे संकट आई भारी
अधर्म निभाते धर्म-पुजारी
करते प्रहार उन भले जनों पर
जो होते लाचार सा अक्सर
बोलते उनसे दंभ की भाषा
बाहुबली बन तोड़ते आशा
देते कठिन दण्ड की मार
तोड़कर उनके घर व द्वार
संप्रदाय का जहर फैलाकर
जांत-पात का कहर दिखाकर
धर्म-परिवर्तन का जाल पसारे
कुछ ना सोचे कुछ ना विचारे
सभ्यता से करते खिलवाड़
विषाद बढाते हैं बार-बार
शिक्षित-शिष्ट-उद्द्योगी बनते
विवेकपूर्ण सा कार्य जो करते   
दहशत को ना नीति बनाते  
धर्म-सम्मत वो रीति निभाते
धर्म कभी न ऐसी होती  
जो मन में दुर्भावना लाती
ना ही कभी हिंसा को बढाती
ना कहीं अत्याचार कराती
ना ही मजहब ऐसा होता
जो पथहीन दिशा को जाता
धर्म में वो पावनता होती
लोक-मानस का मर्म समझती
इस देश की अनुपम संस्कृति
दी है सदा अनमोल विभूति
धर्म हमारी धरोहर है  
       संस्कार की सरोवर है.       
        

Friday, 10 April 2015

धरती-पुत्र किसान हमारे


धरती-पुत्र किसान हमारे
जीवन अपना हार चुके हैं
उनकी दशा हुई भयावह
मौतों को स्वीकार चुके है .
सूखे अकाल व बेरोजगारी
सपनों को ही तोड़ चुके हैं
भारत की जो रीढ़ कृषि थी
आज वही दम तोड़ चुके हैं .
कर्ज के बोझ से दबे बेचारे
खुशहाली को छोड़ चुके हैं
अंतहीन दुश्चक्र ने उनकी   
तन-मन को झकझोड़ चुके हैं .
बिन मौसम की बारिश ने तो
दर्द उन्हें पुरजोर दिया है
कृषि की लागत सारा साधन
यूँ ही व्यर्थ बेकार हुआ है .
जिसके मन में पुलक भरी हो
जो सदा पीड़ा को सहते
श्रमशक्ति की स्वेद से जिसका
तन-मन सारा यूँ ही महके .
सारे जग का करते पोषण
मन जिसका हो सुन्दर पावन
आज उन्ही की अंत हो रही
जो खेतों में लाये सावन .
अन्नदाता को बचाना होगा
जिम्मेदारी निभाना होगा
उनके सर का बोझ हटा के
             भोजन-प्रसाद को पाना होगा.           

Friday, 3 April 2015

हनुमान-नमन


तेरी महिमा गाये पुराण
मैं क्या लिखूँ भगवान
तेरी महिमा गाये पुराण ..
तुम अंजनी के पूत प्यारे
तुम वैदेही के दुलारे
तुम रामदूत हनुमान
तेरी महिमा गाये पुराण ..
तुम काल बने संहारक
तुम रावण दर्प विदारक
तुम सेवक प्रिय सुखधाम
तेरी महिमा गाये पुराण ..
तुम बुद्धि-बल के आगर
तुम लाँघ गए थे सागर
तुम वायु पुत्र बलवान
तेरी महिमा गाये पुराण ..
तुम भक्तों के उपकारी
तुम तुलसी के हितकारी
तुम शंकर के अभिमान
तेरी महिमा गाये पुराण ..