कह रहा है खड़ा
हिमालय
थे हम कभी मुनि का आलय
शिव-शंकर करते थे निवास
होता ऋतु वसंत का वास
प्रकृति सुंदरी उमा विचरती
लता कुसुम से सदा संवरती
गंगा-यमुना सुता हमारी
दुषित हो रही पृथा हमारी
देश का सच्चा प्रहरी बनकर
सहता रहा आघात निरंतर
लक्ष्य था क्या उद्देश्य था क्या
आज हमें कुछ नहीं पता
छिन्न-भिन्न हो गयी श्रृंखला
पाशविकता ने शस्त्र संभाला
विचर रहा है दैत्य सुबाहु
कहाँ से लाऊं राम का बाहु
देश की इस संस्कृति की शोभा
ईश ही जाने अब क्या होगा
त्याग-तप निष्ठा नहीं माने
कोई करुणा-क्षमा ना जाने
अनीति पाले सत्ताधारी
घृणा-द्वन्द रहता है जारी
रह-रहकर उन्माद जगाता
द्रोह-प्रतिशोध बैर निभाता
स्वयं भी तो दर्द भोगता
फिर भी कलुष की राहें चलता
सृष्टि का श्रृंगार मनुज है
ज्ञान का आगार मनुज है
सहज बोध हो सुन्दर सुखमय
जग का जीवन हो मंगलमय.