दण्ड या पुरस्कार,क्या
दूँ उसको
प्राण से बढ़ कर,चाहा
था जिसको
भगवान परशुराम,थे
दुखी बड़े
क्रोध से थर –थर,कांप
रहे
छल ,कपट और,झूठ
के साथ
उसने किया,मुझको
आघात
मेरे प्रण को, तोड़
दिया
धोखे से विद्या,ग्रहण
किया
समर्थ गुरु,परशुराम
थे
ब्राह्मण को,देते ज्ञान थे
ब्राह्मण वेश
में,कर्ण थे आये
चरणों में उनके,शीश
नवाए
मुनि ने उसके,तेज
को परखा
सीखने की उस,ललक
को समझा
विद्याभ्यास का,नियम
बना
क्रम-अनुसार,प्रतिदिन
चला
बालक की,निष्ठां
की परीक्षा
सदैव लेते,करते
समीक्षा
श्रद्धा –भक्ति
की,भाव उमड़ती
गुरु से खूब,प्रशंसा
मिलती
भगवन ने कुछ,मन
में सोची
आज परीक्षा,अंतिम
होगी
कर्ण के जंघा,पर
थे सोये
दोपहर होने,को
आये
ब्रम्ह- कीट एक,भूमि
से निकला
जंघा छेद कर,बाहर
निकला
दर्द भरी वो,पीड़ा
सह ली
मुंह से कोई,आह न
निकली
गुरुदेव की,आँखें
खुली
रक्त – भरी,धरती
मिली
स्थिति सारी,समझ
में आई
कर्ण को उन्होंने,डांट
लगाई
कौन है तू ,नहीं
है ब्राह्मण
नहीं होता,ब्राह्मण
को संयम
क्या है वर्ण,तेरा पता
किस वंश से,तेरा
नाता
सच है क्या,ये
मुझे बता
नहीं तो तेरी,मौत
बदा
सूतपुत्र हूँ,मैं
गुरुदेव
राधेय नाम,मेरा
ब्रम्हदेव
अधिरथ-
राधा,माता-पिता
उच्च –कुल से,नहीं
मेरा नाता
क्षमा करे,गुरुदेव
मुझे
युगल चरण,हाथों
से गहे
परशुराम,क्रोधित
हुए
पर जल्द ही,संयत
हुए
सेवा-श्रद्धा,भूल
न पाए
कृतज्ञता को,वो
अपनाये
झूठ छल,कपट के
साथ
तुमने किया,घोर
अपराध
प्रतिज्ञा मेरी,किये
हो भंग
इसीलिए,देता हूँ
दण्ड
छल से विद्द्या,जो तुम पाए
अंत समय में,काम
न आए
परन्तु
तेरी,सच्ची-सेवा
दिल को भायी,भक्ति- श्रद्धा
जब तक होगा,ये संसार
तुम रहोगे,अमर अपार
महावीर में,होगा
नाम
तुम बनोगे,अतुल
महान
कहा मुनि ने,आश्रम
छोड़ो
इस दुनिया में,कहीं
भी जाओ
भाग्य को रोते,कर्ण
चला
दण्ड या,वरदान
मिला
नेत्रों से,दो बूंद
ढली
समय पर दोनों,बातें फली
भारती दास ✍️