Thursday 30 April 2020

पहन मुखौटा वेश बदलते


ऊंची इमारत सड़क बनाते
टूटी चीजें मरम्मत करते
हठ करते वो जिद्दी होते
श्रमिक ये सारे ऐसे होते.
जन सुविधा को सजाये रहते
विश्वास सबों से बनाये रहते
भूख प्यास को दबाये रहते
गम अनेकों छुपाये रहते.
रिश्ते नाते समाज के वादे
निभाते निर्मम मोह के धागे
कैसे कहां पर फंसे अभागे
रो पड़ते निज व्यथा के आगे.
लोग भावना बदलते रहते
मानवता को निगलते रहते
धर्म के पथ से निकलते रहते
अन्याय की राह पर चलते रहते.
पहन मुखौटा वेश बदलते
विद्वान विज्ञ तो वेद बदलते
सत्कर्म सहायक रंग बदलते
समाज के नायक ढंग बदलते.
छद्म-अछद्म का मुखौटा संगम
सत्य-असत्य कह देता क्षण-क्षण
बहती सांसों का ये सरगम
छलते नही है कभी अंतर्मन.
भारती दास

 

10 comments:

  1. बहुत बहुत धन्यवाद सर 🙏🙏

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  2. बहुत बहुत धन्यवाद सर

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  3. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार(०३-०५-२०२०) को शब्द-सृजन-१९ 'मुखौटा'(चर्चा अंक-३६९०) पर भी होगी।

    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    ….
    अनीता सैनी

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद अनीता जी

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  4. सुंदर अभिव्यक्ति ,सादर नमन आपको

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  5. बहुत बहुत धन्यवाद कामिनी जी

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  6. सार्थक संदेश देती रचना।

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  7. बहुत बहुत धन्यवाद कुसुम जी

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