Sunday 19 March 2017

चाँद फिर झांका खिड़की से



चाँद फिर झांका खिड़की से
विहंस उठा मेरी झिड़की से
चाँद फिर झांका खिड़की से....
चुपके चुपके दबे पांव से
वो आता हर शहर गांव से
मन को मोहता दुग्ध-हंसी से
चाँद फिर झांका खिड़की से....
दुःख के साथी सुख के साथी
कहता हम हैं सच्चा साथी
कह डालो हर बात ख़ुशी से
चाँद फिर झांका खिड़की से....
वो बढ़ता है वो घटता है
पथ पर यूँ चलते रहता है
उसे बैर ना क्लेश किसी से
चाँद फिर झांका खिड़की से....
दूर गगन में वो रहता है
कही-अनकही सब सुनता है
कुछ समझाता वो चुप्पी से
चाँद फिर झांका खिरकी से....         

Saturday 4 March 2017

ओ बसंती उन्मत पवन



ओ बसंती उन्मत पवन
महसूस कर दर्दे चमन
निहार जरा कातर नयन
फिर बढ़ाना तुम कदम
तू निडर मगरूर है
मद में ही अपने चूर है
तू लाचार ना मजबूर है
फिर क्यों जमीं से दूर है
अब छोड़ दे आवारापन
ये उन्मादी अक्खड़पन
बांध ले चंचल सा मन
समझेगा तू कब अवकुंठन
कांप उठा है पेड़ बबूल
बिखरा है पथ ढेरों शूल
जीवन लघु है मत ये भूल
युग साधना तू कर कबूल.