Monday 28 July 2014

हो मुबारक ईद की शाम


करें कुबूल दुआ सलाम

हो मुबारक ईद की शाम......

मीठी सेवइयां ढेरों मिठाइयां

भर जाये जीवन में खुशियां  

मिट जाये सब मैल तमाम

हो मुबारक ईद की शाम .....  

प्रेम से बढ़कर धर्म नहीं है

धर्म पे होता अधर्म यहीं है

सब धर्मों में एक पैगाम

हो मुबारक ईद की शाम ......

एक ही जग के होते स्रष्टा

एक ही जग के होते हन्ता

उनको पुकारें किसी भी नाम

हो मुबारक ईद की शाम .......

हर मजहब में चाँद है सुन्दर

दिन को राह दिखाते दिनकर

देती सितारें जगमग शाम

    हो मुबारक ईद की शाम ........ .


Friday 18 July 2014

गृहस्थ जीवन है तपोवन


महर्षियों का श्रेष्ठ वचन

गृहस्थ जीवन है तपोवन


भारतीय संस्कृति की शान


रिश्ते नातों का सम्मान


शादी होती बनता परिवार


जिम्मेदारियों का बड़ा पहाड़


एक दूजे का सम व्यवहार


कुशल आदतें गुण संस्कार


चिंता चिंतन और सहयोग


सांसारिक सुख का उपयोग


जहाँ छीनता सुख अधिकार


वो कहाँ होता है परिवार


नारी संवेदना का है रूप


स्नेह भावना का प्रतिरूप


वो चाहे तो घर हो सुन्दर


वो चाहे तो घर हो जर्जर


विधि ने गुण देकर कुछ खास


बसा दिया नारी में सुवास


कल्पना में रंग भरकर


अरमानों को संग लेकर


हरपल आगे बढती जाती


जीवन पथ को सुखद बनाती


सेवा संयम धैर्य अपनाती


गृहस्थ जीवन सफल बनाती


अपनापन कभी न छोड़ती


स्वाभिमान से मुँह न मोड़ती


इक-दूजे में स्नेह जगाती 


प्यार-विश्वास-आश से जीती


राजा जनक का सुन्दर गेह


कहलाते थे वे विदेह


गृहस्थ जीवन में ही रहकर


काम किये योगी सा बनकर


जप-तप-पूजा साधना ध्यान


मन के अन्दर ही है ज्ञान


क्यों भटके जंगल और धाम


उर में बसते है भगवान


सुन्दर घर संसार जो होता


नर नारी दोनों से बनता


थोड़ा संयम रखना होता  


थोड़ा थोड़ा तपना होता  


सुखमय होगा सबका संसार  

क्यों बिखरेगा कोई परिवार

Friday 11 July 2014

नेत्रहीनता उनकी व्यथा थी



धृतराष्ट्र जो जन्मांध हुए थे
अत्यधिक ही मोहान्ध हुए थे
वो सदा दुखित हुए थे
पुत्र मोह से व्यथित हुए थे
आत्महीनता से ग्रसित थे
महत्वाकांक्षा से पीड़ित थे
जीवन चेतना लुप्त हुयी थी
व्यक्तित्व उनकी सुप्त पड़ी थी
नेत्रहीनता उनकी व्यथा थी
उसी व्यथा से कथा बनी थी
अति मोह आकांक्षा की डोर
मन के अन्दर था पुरजोर
महात्मा विदुर महर्षि व्यास
बुझा सके न उनकी प्यास
आसान नहीं उनको समझाना
सत्य-तत्व का बोध कराना
बड़ा कठिन था कुछ भी बताना
सही प्रतीक उपमा को देना
प्रकृति जो इतनी सुन्दर है
अंधे जन को कहाँ खबर है
महा कपटी शकुनि का खेल
उनको बनाया विष का बेल
कलुष कषाय और कालिमा
कभी नहीं देते सुखद लालिमा
पुत्र हठ को छोड़ ना पाये
सत्य को स्वीकार ना पाये
भोग विलास ऐश्वर्य को चाहा
जिसके लिए अधर्म निवाहा
पतिपरायणा थी गांधारी
धर्मपरायणा थी बेचारी
दो डोरो पर उलझ रही थी
दुर्योधन ही कमजोर कड़ी थी
मन की आँख से देख न पाई
जीवन अपना समझ न पाई
प्राप्तव्य यहीं है यहीं गंतव्य
यहीं है जीवन के कर्तव्य
सौ पुत्रों के पिता बने थे
अहंकार की चिता बने थे
संस्कार को दुषित बनाया
अंधेपन का लाभ उठाया
हठी पुत्रों ने युद्ध कराई
व्यर्थ ही अपनी जान गंवाई
पिता ने अपना सब कुछ हारा
अपने ही हाथों वंश उजाड़ा
एक ही पुत्र से रोशन जग हो
जैसे चाँद से शोभित नभ हो
संस्कारमय सद जीवन हो
दुषित कभी ना अपना मन हो .