Friday 28 June 2013

जीवन संग्राम








जिन्दगी संग्राम है एक,
  लड़ना हमें पड़ेगा

जीवित रहने के लिए, 
 जूझना हमें पड़ेगा

अपनी माता के गर्भों से, 
संघर्ष शुरू होता है

जब-तक जीवन में होता दम, 
सहर्ष ही चलता है

जटिल न हो पथ जिसका,
निर्जीव सा वो  होता है

चुनौती के माध्यम से ही,
प्रखर सा जीव होता है

कभी-कभी ऐसा भी होता,
मुश्किल भरा ही हर पल होता

मेहनत-लगन-थकन सब करके ,
फिरभी जन सफल नहीं होता

अपनी हार  स्वीकार करे हम, 
या फिर प्रयास रखे जारी

मानसिक दुःख को परे हटाकर, 
जीतने की कर लें तैयारी

कोशिश करके बढ़ने वाले,  
 कर लेते इच्छा की पूर्ति

यही सोच कर सदा चले हम, 
लड़ने की हो खुद में शक्ति

हार –जीत जीवन का संगम, 
है केशव की सुन्दर उक्ति

व्यक्तित्व उसीका है निखरता, 
वही बनता इक और विभूति

भारती दास

Thursday 27 June 2013

अनंत की अंतिम बेला



 




हिरण कपिला नदी के संगम

वृक्ष के नीचे बैठे मोहन

शीतल-पवन मधुर मन-भावन

मोर-पंख सुन्दर सुख आनन

ध्यान में लीन थे बांकेबिहारी

स्मरण हो आया माता गांधारी

यदु-कुल नाश का शाप दिया था

कुपित व्यथित अभिशाप दिया था

यह सोचकर  केशव घबराये

मन-पीड़ा से नयन भर आये

एक तीक्ष्ण एहसास हुआ

दायें तलवे को छेद गया

ध्यानस्थ कृष्ण ने खोली आँखे

असीम वेदना से निकली आहें

एक नुकीला तीर लगा था

उष्ण-रुधिर की धार बहा था

उसी समय झाड़ी से निकला

शिकार देखने को वो मचला

बहेलिये का नाम “जरा” था

जिस के हाथों वध हुआ था

रक्त-धार से भूमि लाल था

डर से जरा का बुरा हाल था

प्रभु-प्रभु कर चीत्कार उठा

भयभीत हुआ वो कांप उठा

ओह ये मैंने क्या कर डाला

अपने प्रभु को मार ही  डाला

हे प्रभु मुझको माफ़ करे

मैंने पाप किया अपराध भरे

आत्मग्लानि से जरा घबराया

नयन-नीर से प्रभु पग धोया

नहीं कोई तुझसे पाप हुआ

ये होना ही था जो आज हुआ

माता गांधारी का था शाप

प्रारब्ध रचा है अपने आप

तुम पाप-मुक्त हो आत्म शुद्ध हो

तुम तो केवल निमित मात्र हो

वही कृष्ण जो जग पूजित थे

आज बड़े विचलित हुए थे

कुछ ही पल अब शेष है मेरा

एक कार्य करो विशेष है मेरा

मेरे सखा अर्जुन से कहना

मुझको अब स्वधाम है जाना

इस देह से कुछ नहीं लेना

वो जो चाहे इसको करना

इक सन्देश राधा को देना

हुआ जरुरी जग से जाना

यह कहकर अचेत हुए

अनंत रूप समेट लिए

आँखों से गुजरा जमाना

ब्रजभूमि में लीला करना

यमुना किनारे गाय चराना

गोपियों के  संग  रास रचाना

राधा का  वो प्रणय निवेदन

मिला न इस जनम में तन-मन

एक युग-पुरुष का अंत हुआ

उनका जीवन मंद हुआ

ये अनंत की अंतिम बेला

छोड़ गए जग नन्द-गोपाला .


भारती दास

गांधीनगर ,गुजरात  

Monday 24 June 2013

पिता की पीड़ा



एक पिता से खुदा खफा थे,बचपन में उनके पिता नहीं थे.
चाचा के संग बचपन बीता,दसवीं तक ही उनको सींचा .
भविष्य था उनका अंधकार ,थे बहुत वे समझदार.
शिक्षण करते खुद भी पढ़ते ,शिरोधार्य हर कष्ट वो करते.
मेंहनत उनकी थी फलदायी ,स्नातक की डिग्री पायी .
शिक्षक बनकर थे तैयार,चरित्र था उनका इमानदार .
खुद उनके बच्चे थे चार,रखते थे सुन्दर विचार.
सब बच्चों को वही पढ़ाते,उन सबसे आशा भी रखते.
जिस बेटे से सर था ऊँचा,उसी ने की थी पूरी इच्छा .
श्रेष्ठ विद्यालय में हुआ चयन,पिता के भर आये  नयन.
छात्रवृति भी मिलने लगी ,पढाई उसकी चलने लगी .
अपनी गति से समय चला,अधिकारी बन वो निकला.
शादी हुई परिवार बना ,अपने परिजन को भूल चला .
बस उसको है एक ही सपना,धन-जुगार हो केवल अपना.
पिता बेचारा दीन-हीन, हो गया सर्वश्व विहीन ,
रोम –रोम में जिसे बसाया,आज उसीने किया पराया.
भूल गया पिता का प्यार, वो समस्त जीवन व्यवहार.
पिता का वो रातों का जगना,स्नेह से उनका माथा चूमना.
पिता को सम्मान है प्यारा,दर्द छिपा लेते हैं सारा.
लेकिन अन्दर में उनका मन,राह देखता हर-पल क्षण-क्षण.
एक ही घर की कथा नहीं है, हर पिता की व्यथा यही है .
क्यों खुदगर्ज हो जाते बच्चे, जीते जी तो  मौत ही देते .
पिता ने खुद को लिया संभाल, बेशक वो रहते खुशहाल.
एक मंत्र जो शक्ति देता, उनके कष्टों को हर लेता .

“जाही विधि राखे राम
ताहि विधि रहिये”.


द्वारा:- भारती दास